दीनदयाल जी के कुछ संस्मरण
Abstract
बचपन में गाँव की पाठशाला में पढ़ते समय छुट्टी के पहने मुहानी होती थी। एक विद्यार्थी खड़ा होकर गिनती और पहाड़े कहता था और शेष सब दोहराते थे। उस समय 16✖9 ही हमको सबसे प्रिय लगता था तथा उसको हम लोग बड़े लहजे के साथ कहते थे श्सोलह नम्मा चलारे चवाल सौश्। शेष सब संख्याओं को उनके साधारण नाम से, क्यों कहा जाता था इसका रहस्य जानने की हमने कभी चिंता नहीं की। किंतु यह सत्य है कि इसको दोहराने में आनंद खूब आता था। एक कारण तो यह हो सकता है कि इसमें छुट्टी के आनंद की कल्पना छिपी हो क्योंकि सोलह नम्मा के बाद ही सोलह दहाई एक सौ साठ कहते ही मुहानी समाप्त हो जाती थी और हम सब अपना-अपना बस्ता, जिसको कि पहले से ही बाँधकर सँभालकर रख दिया जाता था, उठा घर की ओर दौड़ पड़ते थे, फिर चाहे स्कूल से निकल रास्ते खेलते-खाते (आम की अमिया) घर रात होते-होते ही पहुँचते। श्सोलह नम्मा चलारे चवाल सौश् को धीरे-धीरे मस्ती से कहकर दिन भर की थकान भी निकल जाती थी। किंतु इसमें एक खराबी थी, इसकी लंबाई तथा शेष सब संख्याओं की भिन्नता के कारण पंडित जी का, जोकि हमारी मुहानी के समय या तो सीधा बाँधते रहते थे या गाँव के किसी व्यक्ति से बातें करते रहते थे, ध्यान अवश्य आकर्षित हो जाता था और फिर कभी वे दुबारा मुहानी की या किसी पहाड़े विशेष को कहने की आज्ञा दे देते थे। शायद इसीलिए पंडितजी ने ’एक सौ चवालीस’ का नामकरण श्चलारे चवाल सौश् कर दिया हो क्योंकि यह तो हम शपथपूर्वक कह सकते हैं कि यह नाम हमको पंडितजी ने ही बताया था।