संघ जीवन उपासक - दीनदयाल उपाध्याय
Abstract
अब से प्रायः तीन हजार वर्ष पूर्व भारतवर्ष के जन-जीवन में कर्म, चेतना, क्रांति-भावना तथा महत्त्वाकांक्षाओं का उदय हुआ था और उस समय इस देश के समस्त समाज ने अपने-अपने क्षेत्र में उन महत्त्वाकांक्षाओं का प्रटीकरण कला-कौशल तथा वाणिज्य व्यवसाय की उन्नति, छात्रबल के विकास तथा ब्राह्मणों द्वारा स्याम, इंडोचायना, चीन और जापान आदि में ज्ञानदीप के प्रकाश का प्रसार करके वृहत्तर भारत में सांस्कृतिक साम्राज्य की स्थापना द्वारा किया था। वह हमारा स्वर्णयुग था। श्कर्म, चेतना, जनजागरण और महत्त्वाकांक्षाओं के प्रकटीकरण की वह भावना भले ही कभी रुक गई हो परंतु जाह्नवी की धारा के सदृश वह पुनः अब प्रकट हो चली है, और संसार की कोई शक्ति इस प्रवाह को अब रोक नहीं सकती।श् उपरोक्त ओजस्वी उद्बोधन द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहप्रांतीय प्रचारक श्री दीनदयालजी उपाध्याय ने लगभग डेढ़ घंटे तक दिए गए अपने धारा प्रवाहिक सारगर्भित भाषण में गाजियाबाद जिला संघ कार्यकर्ताओं को संघ कार्य में प्रगति करने को प्रेरणा देते हुए विदा किया। स्वतंत्रता स्वयं साध्य नहीं केवल साधन है। जेल से बाहर हुए आदमी के सदृश कुछ करने के लिए हमारे साथ खुल जाते मात्र हैं, कुछ उत्तरदायित्व हमारे ऊपर आ जाता है। केवल देश के निर्माण करने के लिए भला या बुरा, जैसा भी हम चाहें, हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई है।