एकात्म मानववाद
Abstract
पश्चिम का अंधानुकरण ही विकास समझा जा रहा है। पश्चिम की भोगवादी संस्कृति यह मानती है कि मानव जीवन भोग के लिए ही हुआ है, और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रकृति का अनैतिक शोषण, मानव का अधिकार है। इसके विपरीत भारत की सनातन रचना अखंड मंडलाकार है, इसमें मानव, परिवार समाज राष्ट्र और अंततः यह समस्त सृष्टि है। भारतीय संरचना में पहली इकाई से ही अंत तक की इकाइयां विकसित होती हैं और वृद्धि करती हैं, इनमें परस्पर कोई विरोध नहीं है। पंडित जी ने इसी दर्शन को एकात्म मानववाद कहा है। यह दर्शन आज भी अत्यंत प्रासंगिक है, क्योंकि पर्यावरण के प्रति जब हमारा दृष्टिकोण एकात्मक का होगा, तो हम उसका संयमित उपयोग करते हुए उसके विकास का भी प्रबंध करेंगे। हमारी संस्कृति में आज भी नदी को माता का सम्मान दिया जाता है, यह हमारी धर्म भीरुता नहीं, वरन उस की हमारे जीवन में उपयोगिता के कारण, उसके प्रति हमारे कर्तव्य को सुनिश्चित करने का, हमारे मनीषियों का दर्शन था। भारतीय संस्कृति में मानव और प्रकृति एक दूसरे के अभिन्न अंग है।